Lekhika Ranchi

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राष्ट्र कवियत्री ःसुभद्रा कुमारी चौहान की रचनाएँ ःबिखरे मोती


मछुए की बेट


तिन्नी! तुम सदा ही मेरे हृदय की रानी रही हो और रहोगी। आज ऐसी बातें क्यों करती हो?
-सो कैसे? बिना विवाह हुए ही मैं तुम्हारी या तुम्हारे हृदय की रानी कैसे बन सकती हूं? -तिन्नी ने रुखाई से पूछा।
-तिन्नी! रानी बनने के लिए विवाह ही थोड़े जरूरी है। जिसे हम प्यार करें वही हमारी रानी।
तिन्नी का चेहरा तमतमा गया। बोली-धत्! मैं ऐसी रानी नहीं बनना चाहती। ऐसी रानी से तो मछुए की बेटी ही भली! और मनोहर के उत्तर की प्रतीक्षा न करके पिता के पास जाकर मोटर पर बैठ गयी। मोटर स्टार्ट हो गयी।
जब यह लोग रियासत में राजा साहब के महल के सामने पहुंचे तब कुछ अंधेरा हो चला था। इनके पहुंचने की सूचना राज साहब को दी गयी। चौधरी पुत्री समेत महल के सूने कमरे में बुलाये गये। कमरे में राजा साहब और कृष्णदेव को छोड़कर कोई न था। डर के मारे चौधरी की तो हुलिया बिगड़ रही थी। किन्तु तिन्नी मन ही मन मुस्करा रही थी। पिता-पुत्री का उचित सम्मान करने के उपरान्त राजा साहब ने मछुए को संबोधन करके कहा-चौधरी, हमने तुम्हें किसलिए बुलाया है कदाचित तुम नहीं जानते।
चौधरी भय से कांप उठे। हाथ जोड़कर बोले-मैं तो महाराज का गुलाम हूं, सदा...
राजा साहब बात काटते हुए बोले- हम तुम्हारी इस कन्या को राजकुमार के लिए चाहते हैं।
तिन्नी ओठों के भीतर मुस्करायी और चौधरी आश्चर्य से चकित हो गये। एक बार राजा साहब की ओर और फिर उन्होंने तिन्नी की ओर देखा। सहसा चौधरी को इस बात पर विश्वास न हुआ। कहां मैं एक साधारण मछुआ और कहां वे एक रियासत के राजा! हमारे बीच में कभी रिश्तेदारी भी हो सकती है? फिर न जाने क्या सोचकर भय-विह्वल चौधरी ने हाथ जोड़कर कहा-महाराज, यह कन्या मेरी नहीं है।
राजा साहब चौंक उठे। आश्चर्य से उन्होंने चौधरी से पूछा-फिर यह किसकी लड़की है?
हाथ जोड़े-ही-जोड़े चौधरी बोले-महाराज, पन्द्रह साल पहले की बात है, नदी में बहुत बाढ़ आयी थी। उसी बाढ़ में, मेरे बुढ़ापे की लकड़ी यह कन्या मुझे मिली थी। यह एक खाट पर बहती हुई आयी थी और इसके गले में एक छोटी सी सोने की ताबीज थी।
ताबीज का नाम सुनते ही राजा साहब को ताबीज देखने की उत्सुकता हुई। उनके मस्तिष्क में किसी ताबीज की धुंधली स्मृति छा गयी। पिता के आदेश से तिन्नी गले से ताबीज निकालने के लिए ताबीज के धागे की गांठ खोलने लगी।
मछुए ने फिर कहना शुरु किया-महाराज! इस ताबीज का भी बड़ा विचित्र किस्सा है। एक बार ताबीज का धागा टूट गया, कई दिनों तक याद न रहने के कारण यह ताबीज इसे न पहनायी जा सकी। बस महाराज, यह तो इतनी ज्यादा बीमार पड़ी कि मरने-जीने की नौबत आ गयी। और फिर ताबीज पहनाते ही बिना दवा-दारू के ही चंगी भी हो गयी। तब से ताबीज आज तक उसके गले में पड़ी है।
राजा साहब को स्मरण हो आया कि पन्द्रह साल पहले उनकी लड़की भी टेन्ट के अन्दर से बाढ़ में बह गयी थी, जिसके गले में उन्होंने भी एक ज्योतिषी के आदेशानुसार ताबीज पहनायी थी, उन्होंने एक बार कृष्णदेव, और फिर तिन्नी के मुंह की तरफ देखा। उन्हें उनके मुंह में बहुत कुछ समानता दीख पड़ी। तब तक तिन्नी ने गले से ताबीज निकालकर राजा साहब के सामने कर दिया। राजकुमार का हृदय बड़े ही वेग से धड़क रहा था। ताबीज हाथ में लेते ही राजा साहब ने 'मेरी कान्तीÓ कहते हुए तिन्नी को छाती से लगा लिया। यह वही ताबीज थी जिसे ज्योतिषी के आदेश से राजा साहब ने पुत्री के गले में पहनाया था।
पिता-पुत्री और भाई-बहिन का यह अपूर्व सम्मिलन था। सब की आंखों में प्रेम के आंसू उमड़ आये।
अब महल के पास चौधरी के रहने के लिए पक्का मकान बन गया है। चौधरी अपनी स्त्री समेत वहीं रहते हैं। अब उन्हें नाव नहीं चलानी पड़ती, रियासत की ओर से उनकी जीविका के लिए अच्छी रकम बांध दी गयी है।
राजमहल में रहती हुई भी कांती, चौधरी के घर आकर तिन्नी हो जाती है। अब भी वह चौधरी के साथ उनकी थाली में बैठकर चौधराइन के हाथ की मोटी-मोटी रोटियां खा जाती है।
तिन्नी को बहन के रूप में पाकर कृष्णदेव को कम प्रसन्नता न थी। वे तिन्नी का साथ चाहते थे- चाहे वह पत्नी के रूप में हो या बहन के।

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